Friday, January 4, 2008

विवेचना रंगमंडल राष्ट्रीय नाट्य समारोह २००८ (पहली कतरन)



मध्य प्रदेश के संगमरमरी शहर जबलपुर में विवेचना रंगमंडल का नाट्य समारोह आज मानस भवन में शुरू हुआ। पत्रकारिता के पितृ पुरुष कहे जाने वाले स्व.श्री विशम्भर दयाल अग्रवाल को पुष्पमाला समर्पित करते हुए समारोह कि शुरुआत की गयी। आज के समारोह में प्रथम प्रस्तुति समागम रंगमंडल की तरफ से दी गयी। समागम द्वारा आचार्य चतुरसेन लिखित "सोमनाथ" को आशीष पाठक के निर्देशन में दर्शकों के बीच लाया गया। सोमनाथ का मंचन जिस वक़्त मानस भवन में हो रहा था, उस वक़्त वहाँ उपस्थित मानस ने ये सोचा भी नही होगा कि शहर के कलाकार तमाम असुविधाओं से जूझते हुए हृदय को उच्च रक्ताचापित कर देने वाली अभिवयक्ति देंगे। स्थानीय मोहनलाल हरगोविंद दास महिलामहाविद्यालय की छात्राओं ने नाटक में प्रस्तुत पुरुषों के किरदारों को भी बेहतर निभाया है। इन्हीं छात्राओं के अथक प्रयासों से राष्ट्रीय युवा महोत्सव में प्रथम स्थान पर था।

सोमनाथ के आज के मंचन को देखने क बाद लगा कि तत्कालीन और समकालीन समय में हम जिन अनीतियों और अनैतिक्तायों को रीति-रिवाजों, मान-सम्मान का चोला पहनाकर ढंका सा महसूस करते हैं तब वास्तव में कुछ भी दिखने को शेष नही रह जाता है। एक बाल विधवा ब्राह्मण कन्या का शूद्र से प्रेम, एक शूद्र की रुद्र दर्शान्भिलाषा, एक ब्राहम्ण का मूढ़ पांडित्य, एक पुरुष का अनादर और एक प्रेमिका का राष्ट्रप्रेम। इन सबके इर्द-गिर्द घूमती सोमनाथ की कहानी, जहाँ एक पुरुष अपने खोये हुए स्वाभिमान को खोजने हेतु देव कृष्ण से फतह मोहम्मद बन जाता है। जो कभी राजा भीमदेव के राजगुरु और सैनिको से अपमानित हुआ था। वही शूद्र भीमदेव कि सेना पर भरी पड़ता है। जब वही फतह अपनी शोभना के पास जीत का सहरा पहन कर आता है तब एक प्रेमिका उस राष्ट्रद्रोही का सिर उतार लेती है। देखा जाये तो बेतरतीब परम्पराओं के चलते किसी का प्रेम तो किसी कि जान चली जाती है। जो शेष बचता है वो सदैव के लिए अधूरा रह जाता है।

सोमनाथ के मंचन के दौरान श्रीधर नागराज का संगीत निर्देशन बहुत सफल रह है, वस्त्रों कि छटा भी श्रीमती शैली घोपे ने खूब बिखेरी है साथ ही नृत्य का निर्देशन भी उम्दा किया है। हर्षित और रोहित झा ने रुप सज्जा में कोई कसर नही छोड़ी लेकिन मंच सज्जा में कमी को स्थान दिया है। इसके बावजूद अमित विश्वकर्मा कि मंच व्यवस्था ठीक रही है। नाटक में गंग का किरदार निभाने वाली अंकिता चक्रवर्ती दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रही हैं। वहीं स्वाति दुबे ने शोभना के पात्र को जीवंत किया है। देव कृष्ण के किरदार में ईशा गोस्वामी ने कहीं पर मनोदशाओं की अभिव्यक्ति को अधूरा छोडा है। कुलजमा एक सोमनाथ आज मानस के बीच कलाकारों ने उपस्थित कर दिया था।
इसी क्रम में विवेचना रंगमंडल ने गुलज़ार कि नज़मों को अभिनय के धागे में पिरोकर मंच पर पेश किया, और नाम दिया "रेशम का शायर"। श्रीमती प्रगति पाण्डेय द्वारा निर्देशित यह रेशम का शायर नज्मों के बिलखने पर तो कभी उनके मुस्कराने पर दर्शकों की तालियाँ बटोरता रह। कुछ नज्मों को इस अंदाज़ में पेश किया गया है जैसे हम खुद से ही कुछ कहना चाह रहे हों। मिटटी थी मिटटी में मिल गयी तो इस पर अफ़सोस कैसा या फिर आदमी बुलबुला है पानी का, ये हमारी जिंदगी के अहम सच हैं। जो लोग गुलज़ार को करीब से जानते हैं वो इस शायर को गुलज़ार से जोड़ कर देखते हैं। किस तरह गुलज़ार पाकिस्तान से भारत आये, मुम्बई पहुंचे, राखी से उनका दोस्ताना और ये तमाम बातें। अगर गुलज़ार की नज्में उनकी जुबां हैं तो रेशम का यह शायर उनके जिंदगी की किताब है, जो गुलज़ार को पूरा बता देती है। वस्तुतः रेशम का यह शायर बचपन से लेकर जवानी, बुढापे और कई तरह की मौतों को जीकर जिंदगी की कड़वाहट, मिठास और शून्यता भरे अनुभवों का बखान नज्मों में कर देता है। उम्मीद का चिराग सोच की बाती के साथ जिंदगी का तेल खत्म होने के बाद भी सदा रोशन रहता है। ठीक वैसे ही जैसे रेशम का कीड़ा, जो मरकर भी नही मरता।

डॉ.सुयोग पाठक के संगीत निर्देशन में गुलज़ार की नज्मों को गुलदस्ता बनाकर मंच पर लाया गया है। गुलज़ार की एक कृति "छैयाँ - छैयाँ" को पूरी तरह से निभाया गया है। निर्देशक मणिरत्नम व्यवसायिकता के चलते फिल्म "दिल से" में "छैयाँ - छैयाँ" के जिन सरोकारों से चूक गए थे उसे विवेचना रंगमंडल ने पूरा किया है। इस कृति के साथ और न्याय किया जा सकता था यदि अलमस्त आवाज़ में इस नज़्म को संवारा जाता। बेशक रेशम का यह शायर के लिए जिन पात्रों का चयन किया गया उनका पसीना मोती की तरह चमका।

0 comments: