कल के मुताबिक आज दर्शक कुछ कम ही लग रहे थे, जो आज हैं वही कल भी थे और शायद आने वाले दिनों में वे ही रहेंगे। चूँकि कल उदघाटन था और कुछ राजनीतिक व्यक्तियों की उपस्थिति के चलते उनके पिछलग्गू भी "नाटक" देखने आये थे। आज न तो वो सफ़ेद कुर्ते वाले लोग थे और न ही उनकी पूछें। हालांकि आज समारोह ३० मिनट देर से ही शुरू हुआ। कल बडे लोगों का इंतज़ार करते-करते समारोह एक घंटा विलम्ब से प्रारंभ हुआ था। शायद इसी को जबलपुर कहते हैं, खैर ये मेरा अनुभव है मैंने कुएं से बाहर झाँककर नही देखा कभी। लेकिन मेरे एक मित्र ने बताया कि कलकत्ता के नाट्य समारोह में घडी मिलकर नाटकों का मंचन किया जाता है और राष्टीय नाट्य विद्यालय वाले भी यही करते हैं। आज सारे फोटोग्राफर्स को माइक के माध्यम से हिदायत दी जा रही थी कि "कृपया मंच के समीप आकर चित्र न लें, इससे कलाकारों का ध्यान भंग होता है। इस सूचना के वक़्त अधिकतम फोटोग्राफर्स वहाँ पहुंचे ही नहीं थे। शायद सूचना जल्दी घोषित की गयी थी। कल के नाटक का एक कलाकार टन-टन कि ध्वनि करता हुआ भवन के बरामदे और आँगन में घूम रह था मानो कह रहा हो कि अगर आ ही गए हो तो अब बैठ भी जाओ ताकि नाटक शुरू कर सकें। आरक्षित कुर्सियों को दम तोड़ता देख उद्घोषक बन्धु गया किया पर द्वारा दानिश पीछे मंच कुर्सियों इकबाल जमें हैं में दानिश आगे कुर्सियों के आमंत्रण को स्वीकारें। लोग आगे स्थानांतरित हो गए। अब सब कुछ ठीक था भवन में अँधेरा हुआ और और शुरुआत हुई "डांसिंग विथ डैड" की।

इत्जिक वेसर्गटन की इज़राइली कहानी मंजुश्री कुलकर्णी द्वारा हिन्दी में अनुवादित तथा इलाहाबाद की नाट्य संस्था सदा आर्ट सोसायटी की ओर प्रो.देवेन्द्र राज अंकुर निर्देशित डांसिंग विथ डैड दानिश इकबाल द्वारा एकल अभिव्यक्त किया गया है।यह नाटक पिता और उसके मानसिक रूप से अविकसित मातृविहीन पुत्र के अंतर्संबंधों पर आधारित है। जहाँ मानसिक रूप से कमज़ोर एक पुत्र अपने बचपन कि घटनाओं को स्मृति के संदूक से निकलकर फिर तह कर देता है। एक पिता और पुत्र कि समाजगत विवशता का करुणा रस प्रधान नाटक , जहाँ उस पुत्र की हास्यात्मक भंगिमाएँ देखकर भी उसके अबोध होने का दुःख होता है। एक पत्रकार की वजह से उपजा एक कलाकार के अन्दर का वैचारिक द्वंद और बाद में उस द्वंद की परिणति पिता की मौत और पुत्र के क्रोध के रूप में पत्रकार पर। इसके साथ ही वे लोग जो दूर होते हुए भी कितने करीब होते हैं और कुछ पास रह कर भी दिखाई नहीं देते। दुनियादारी की सारी बातें मानसिक रूप से अविकसित पुत्र समझता है पर नासमझ लोग उसे अबोध समझते हैं। वो यह भी जानता है कि किसी का दिल नही दुखाना चाहिये, लेकिन कथित बुद्धिजीवी लोग जान-बूझकर ऐसा काम करते हैं। डांसिंग विथ डैड दुनिया के उन ८०% लोगों के अस्तित्व पर उन २०% लोगों से मुखातिब है जो किसी के न होने की कमी को "रिप्लेस" करके पूरा कर लेते हैं।नाटक में निर्देशक ने कोई कमी नही छोड़ी है, किन्तु दानिश इकबाल की अभिव्यक्ति के दौरान विभिन्न पात्रों में प्रवेश करते समय उनकी आवाज़ उलझते हुए समझ आती है। मानसिक रूप से अविकसित पुत्र के चरित्र के भावों को और बेहतर किया जा सकता था। हालाकि शहर में दानिश की यह प्रथम एकल प्रस्तुति थी किन्तु उनके लिए मंच नया नही था। इसलिए दानिश से और बेहतरी कि उम्मीद भी की जा सकती है। संवाद सुनने में आम दर्शकों के स्तर के नही लग रहे थे, इसलिए यह नाटक एक विशेष वर्ग के दर्शकों के लिए है जो कठिन संवादों का अर्थ करने में सक्षम हैं।
इत्जिक वेसर्गटन की इज़राइली कहानी मंजुश्री कुलकर्णी द्वारा हिन्दी में अनुवादित तथा इलाहाबाद की नाट्य संस्था सदा आर्ट सोसायटी की ओर प्रो.देवेन्द्र राज अंकुर निर्देशित डांसिंग विथ डैड दानिश इकबाल द्वारा एकल अभिव्यक्त किया गया है।यह नाटक पिता और उसके मानसिक रूप से अविकसित मातृविहीन पुत्र के अंतर्संबंधों पर आधारित है। जहाँ मानसिक रूप से कमज़ोर एक पुत्र अपने बचपन कि घटनाओं को स्मृति के संदूक से निकलकर फिर तह कर देता है। एक पिता और पुत्र कि समाजगत विवशता का करुणा रस प्रधान नाटक , जहाँ उस पुत्र की हास्यात्मक भंगिमाएँ देखकर भी उसके अबोध होने का दुःख होता है। एक पत्रकार की वजह से उपजा एक कलाकार के अन्दर का वैचारिक द्वंद और बाद में उस द्वंद की परिणति पिता की मौत और पुत्र के क्रोध के रूप में पत्रकार पर। इसके साथ ही वे लोग जो दूर होते हुए भी कितने करीब होते हैं और कुछ पास रह कर भी दिखाई नहीं देते। दुनियादारी की सारी बातें मानसिक रूप से अविकसित पुत्र समझता है पर नासमझ लोग उसे अबोध समझते हैं। वो यह भी जानता है कि किसी का दिल नही दुखाना चाहिये, लेकिन कथित बुद्धिजीवी लोग जान-बूझकर ऐसा काम करते हैं। डांसिंग विथ डैड दुनिया के उन ८०% लोगों के अस्तित्व पर उन २०% लोगों से मुखातिब है जो किसी के न होने की कमी को "रिप्लेस" करके पूरा कर लेते हैं।नाटक में निर्देशक ने कोई कमी नही छोड़ी है, किन्तु दानिश इकबाल की अभिव्यक्ति के दौरान विभिन्न पात्रों में प्रवेश करते समय उनकी आवाज़ उलझते हुए समझ आती है। मानसिक रूप से अविकसित पुत्र के चरित्र के भावों को और बेहतर किया जा सकता था। हालाकि शहर में दानिश की यह प्रथम एकल प्रस्तुति थी किन्तु उनके लिए मंच नया नही था। इसलिए दानिश से और बेहतरी कि उम्मीद भी की जा सकती है। संवाद सुनने में आम दर्शकों के स्तर के नही लग रहे थे, इसलिए यह नाटक एक विशेष वर्ग के दर्शकों के लिए है जो कठिन संवादों का अर्थ करने में सक्षम हैं।