Monday, March 26, 2012

आपका कोई केस चल रहा है डेल्ही में.

पता नहीं...लेकिन शायद एक साल होने को आया है, हर दो महीने में मेरे पास अलग-अलग मोबाइल नंबर से कॉल आता है. और सामने वाला/वाली के मुताबिक वो माननीय "डेल्ही हाई कोर्ट" के किसी विभाग से बोल रहे होते हैं, जहाँ मेरे नाम की कोई केस फ़ाइल होती है जो मेरे वर्तमान पते पर नहीं पहुँच पा रही है. वार्तालाप कुछ ऐसा होता है ...


कॉलर - (नाम) बोल रहे हैं.
मैं - हां
कॉलर - मैं डेल्ही हाई कोर्ट से (नाम) बोल रहा/ रही हूँ. आपका कोई केस चल रहा है डेल्ही में.
मैं - नहीं तो.
कॉलर - मेरे टेबल पर आपने नाम की फ़ाइल है, डेल्ही के वकील (वकील का नाम) ने आप पर केस  किया है. आपका पता ये ये है...आपको फ़ाइल नहीं मिली अभी तक. 
मैं - नहीं तो....पर केस है किस बारे में?
कॉलर - देखिये ये तो नहीं पता...फाइल पर वकील का नंबर है...आप बात कर लीजिये केस के बारे में. नम्बर दूं?
मैं - नहीं रहने दीजिये?
कॉलर - क्यों नहीं चाहिए नम्बर आपको..???
मैं - नहीं..

कॉलर ने काफी कोशिश की कि मैं उस वकील का नंबर लेकर उससे बात करूँ. ऐसा पहले भी एक-दो बार हुआ था, तब मुझे लगा कि कोई मज़ाक कर रहा होगा लेकिन अब मुझे ये लग रहा है कि पहले कोई आपको केस का डर दिखाकर आपको वकील तक ले जाएगा और फिर बाद में बात सेटलमेंट पे आकर ख़त्म हो जाएगी. अगर आपके पास ऐसा कोई भी कॉल आये तो चिंतित ना हों. क्योंकि माननीय न्यायालय अपने सम्मन  की तामीली स्थानीय पोलिस थाने के ज़रिये सहजता से करवा सकती है  लेकिन जहाँ तक मुझे लग रहा है, इस तरह के कॉल्स आपको या तो परेशान करने के लिए होते हैं या फिर आपसे पैसे ऐंठने के लिए. 

Monday, February 1, 2010

इश्किया

इश्किया, अभिषेक चौबे की बतौर निर्देशक पहली फिल्म है, जिसमें रोचक  पटकथा, उत्तम संगीत, मंजे हुए  अभिनय  और सधे हुए निर्देशन का बेहतरीन मेल है. हालाँकि "ए" certificate होने की वजह से आप इसे सपरिवार नहीं देख सकते. इश्किया, ओमकारा का विकसित रूप है ऐसे तब लगने लगता है जब आप उत्तर प्रदेश की अपराधिक प्रष्टभूमि से जुडे हुए लोगों को परदे पर अपने-अपने अंदाज़ में अपशब्दों का भरपूर उपयोग करते हैं. शायद फिल्म की मांग भी बिना इसके पूरी नहीं की जा सकती थी. इस फिल्मे को जैसे ही आप देखना शुरू करें, अपने दिमाग से सारी अटकलों और उम्मीदों को उतार कर सीट के नीचे रख दें. क्योंकि कई जगह फिल्म में उम्मीद से दुगना होते हुए भी दिखाया गया है. फिल्म में कई जगह रोमांटिक सीन इतने रोमांटिक हैं कि आप उनमें डूब जायेंगे और एक किस्सिंग सीन भी फिल्माया गया है जो अब तक के बॉलीवुड किसिंग सीन को मात देता है.

फिल्म की पटकथा शुरू होती है दो चोरों (बब्बन और खालू यानी अरशद और नसीर) के अपने मुह बोले जीजाजी के खौफ से डर कर भागने से. और उनके भागना ही इश्किया को रोचक बनता है. फिल्म में विद्या बालन के अभिनय को देखकर आप उनके कायल हो जायेंगे, वहीँ अरशद अपने भोपाली अंदाज़ में नसीर साहब के साथ मटर-गश्ती करते हुए कई जगह आपको हंसने का मौका भी देंगे. फिल्म के गाने दिल तो बच्चा है जी और इब्न-ए-बतूता, जो गुलज़ार साहब की कलम से निकले हैं वो तो जबरदस्त हैं ही लेकिन फिल्म के संवाद और भी ज़बरदस्त हैं...
जैसे...
...इस दुनिया में सबसे भयंकर दुश्मनी मियां और बीवी की है.
...तुम्हें तो झूठ बोलना भी नहीं आता...., मर्द हूँ न इसलिए.
...तुम परी हो या तवायफ...
...जब तक मुझे तुम्हारे इरादे पता चलते, मेरी नियत तब तक फिसल चुकी थी. ..
...तुम्हारा इश्क-इश्क, मेरा इश्क सेक्स...

बाकी संवाद आप खुद ही सुन लीजिये क्योंकि मैं उन्हें यहाँ नहीं लिख सकता. पर याद रखें अगर आप इश्किया देखने जा रहे हैं तो अपने बच्चों को घर  में छोड़कर जाएँ वरना थेअटर में उन्हें हर चीज़ का मतलब समझत-समझाते थक जायेंगे.

Saturday, January 5, 2008

विवेचना रंगमंडल राष्ट्रीय नाट्य समारोह २००८ (दूसरी कतरन)

कल के मुताबिक आज दर्शक कुछ कम ही लग रहे थे, जो आज हैं वही कल भी थे और शायद आने वाले दिनों में वे ही रहेंगे। चूँकि कल उदघाटन था और कुछ राजनीतिक व्यक्तियों की उपस्थिति के चलते उनके पिछलग्गू भी "नाटक" देखने आये थे। आज न तो वो सफ़ेद कुर्ते वाले लोग थे और न ही उनकी पूछें। हालांकि आज समारोह ३० मिनट देर से ही शुरू हुआ। कल बडे लोगों का इंतज़ार करते-करते समारोह एक घंटा विलम्ब से प्रारंभ हुआ था। शायद इसी को जबलपुर कहते हैं, खैर ये मेरा अनुभव है मैंने कुएं से बाहर झाँककर नही देखा कभी। लेकिन मेरे एक मित्र ने बताया कि कलकत्ता के नाट्य समारोह में घडी मिलकर नाटकों का मंचन किया जाता है और राष्टीय नाट्य विद्यालय वाले भी यही करते हैं। आज सारे फोटोग्राफर्स को माइक के माध्यम से हिदायत दी जा रही थी कि "कृपया मंच के समीप आकर चित्र न लें, इससे कलाकारों का ध्यान भंग होता है। इस सूचना के वक़्त अधिकतम फोटोग्राफर्स वहाँ पहुंचे ही नहीं थे। शायद सूचना जल्दी घोषित की गयी थी। कल के नाटक का एक कलाकार टन-टन कि ध्वनि करता हुआ भवन के बरामदे और आँगन में घूम रह था मानो कह रहा हो कि अगर आ ही गए हो तो अब बैठ भी जाओ ताकि नाटक शुरू कर सकें। आरक्षित कुर्सियों को दम तोड़ता देख उद्घोषक बन्धु गया किया पर द्वारा दानिश पीछे मंच कुर्सियों इकबाल जमें हैं में दानिश आगे कुर्सियों के आमंत्रण को स्वीकारें। लोग आगे स्थानांतरित हो गए। अब सब कुछ ठीक था भवन में अँधेरा हुआ और और शुरुआत हुई "डांसिंग विथ डैड" की।


इत्जिक वेसर्गटन की इज़राइली कहानी मंजुश्री कुलकर्णी द्वारा हिन्दी में अनुवादित तथा इलाहाबाद की नाट्य संस्था सदा आर्ट सोसायटी की ओर प्रो.देवेन्द्र राज अंकुर निर्देशित डांसिंग विथ डैड दानिश इकबाल द्वारा एकल अभिव्यक्त किया गया है।यह नाटक पिता और उसके मानसिक रूप से अविकसित मातृविहीन पुत्र के अंतर्संबंधों पर आधारित है। जहाँ मानसिक रूप से कमज़ोर एक पुत्र अपने बचपन कि घटनाओं को स्मृति के संदूक से निकलकर फिर तह कर देता है। एक पिता और पुत्र कि समाजगत विवशता का करुणा रस प्रधान नाटक , जहाँ उस पुत्र की हास्यात्मक भंगिमाएँ देखकर भी उसके अबोध होने का दुःख होता है। एक पत्रकार की वजह से उपजा एक कलाकार के अन्दर का वैचारिक द्वंद और बाद में उस द्वंद की परिणति पिता की मौत और पुत्र के क्रोध के रूप में पत्रकार पर। इसके साथ ही वे लोग जो दूर होते हुए भी कितने करीब होते हैं और कुछ पास रह कर भी दिखाई नहीं देते। दुनियादारी की सारी बातें मानसिक रूप से अविकसित पुत्र समझता है पर नासमझ लोग उसे अबोध समझते हैं। वो यह भी जानता है कि किसी का दिल नही दुखाना चाहिये, लेकिन कथित बुद्धिजीवी लोग जान-बूझकर ऐसा काम करते हैं। डांसिंग विथ डैड दुनिया के उन ८०% लोगों के अस्तित्व पर उन २०% लोगों से मुखातिब है जो किसी के न होने की कमी को "रिप्लेस" करके पूरा कर लेते हैं।नाटक में निर्देशक ने कोई कमी नही छोड़ी है, किन्तु दानिश इकबाल की अभिव्यक्ति के दौरान विभिन्न पात्रों में प्रवेश करते समय उनकी आवाज़ उलझते हुए समझ आती है। मानसिक रूप से अविकसित पुत्र के चरित्र के भावों को और बेहतर किया जा सकता था। हालाकि शहर में दानिश की यह प्रथम एकल प्रस्तुति थी किन्तु उनके लिए मंच नया नही था। इसलिए दानिश से और बेहतरी कि उम्मीद भी की जा सकती है। संवाद सुनने में आम दर्शकों के स्तर के नही लग रहे थे, इसलिए यह नाटक एक विशेष वर्ग के दर्शकों के लिए है जो कठिन संवादों का अर्थ करने में सक्षम हैं।

Friday, January 4, 2008

विवेचना रंगमंडल राष्ट्रीय नाट्य समारोह २००८ (पहली कतरन)



मध्य प्रदेश के संगमरमरी शहर जबलपुर में विवेचना रंगमंडल का नाट्य समारोह आज मानस भवन में शुरू हुआ। पत्रकारिता के पितृ पुरुष कहे जाने वाले स्व.श्री विशम्भर दयाल अग्रवाल को पुष्पमाला समर्पित करते हुए समारोह कि शुरुआत की गयी। आज के समारोह में प्रथम प्रस्तुति समागम रंगमंडल की तरफ से दी गयी। समागम द्वारा आचार्य चतुरसेन लिखित "सोमनाथ" को आशीष पाठक के निर्देशन में दर्शकों के बीच लाया गया। सोमनाथ का मंचन जिस वक़्त मानस भवन में हो रहा था, उस वक़्त वहाँ उपस्थित मानस ने ये सोचा भी नही होगा कि शहर के कलाकार तमाम असुविधाओं से जूझते हुए हृदय को उच्च रक्ताचापित कर देने वाली अभिवयक्ति देंगे। स्थानीय मोहनलाल हरगोविंद दास महिलामहाविद्यालय की छात्राओं ने नाटक में प्रस्तुत पुरुषों के किरदारों को भी बेहतर निभाया है। इन्हीं छात्राओं के अथक प्रयासों से राष्ट्रीय युवा महोत्सव में प्रथम स्थान पर था।

सोमनाथ के आज के मंचन को देखने क बाद लगा कि तत्कालीन और समकालीन समय में हम जिन अनीतियों और अनैतिक्तायों को रीति-रिवाजों, मान-सम्मान का चोला पहनाकर ढंका सा महसूस करते हैं तब वास्तव में कुछ भी दिखने को शेष नही रह जाता है। एक बाल विधवा ब्राह्मण कन्या का शूद्र से प्रेम, एक शूद्र की रुद्र दर्शान्भिलाषा, एक ब्राहम्ण का मूढ़ पांडित्य, एक पुरुष का अनादर और एक प्रेमिका का राष्ट्रप्रेम। इन सबके इर्द-गिर्द घूमती सोमनाथ की कहानी, जहाँ एक पुरुष अपने खोये हुए स्वाभिमान को खोजने हेतु देव कृष्ण से फतह मोहम्मद बन जाता है। जो कभी राजा भीमदेव के राजगुरु और सैनिको से अपमानित हुआ था। वही शूद्र भीमदेव कि सेना पर भरी पड़ता है। जब वही फतह अपनी शोभना के पास जीत का सहरा पहन कर आता है तब एक प्रेमिका उस राष्ट्रद्रोही का सिर उतार लेती है। देखा जाये तो बेतरतीब परम्पराओं के चलते किसी का प्रेम तो किसी कि जान चली जाती है। जो शेष बचता है वो सदैव के लिए अधूरा रह जाता है।

सोमनाथ के मंचन के दौरान श्रीधर नागराज का संगीत निर्देशन बहुत सफल रह है, वस्त्रों कि छटा भी श्रीमती शैली घोपे ने खूब बिखेरी है साथ ही नृत्य का निर्देशन भी उम्दा किया है। हर्षित और रोहित झा ने रुप सज्जा में कोई कसर नही छोड़ी लेकिन मंच सज्जा में कमी को स्थान दिया है। इसके बावजूद अमित विश्वकर्मा कि मंच व्यवस्था ठीक रही है। नाटक में गंग का किरदार निभाने वाली अंकिता चक्रवर्ती दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रही हैं। वहीं स्वाति दुबे ने शोभना के पात्र को जीवंत किया है। देव कृष्ण के किरदार में ईशा गोस्वामी ने कहीं पर मनोदशाओं की अभिव्यक्ति को अधूरा छोडा है। कुलजमा एक सोमनाथ आज मानस के बीच कलाकारों ने उपस्थित कर दिया था।
इसी क्रम में विवेचना रंगमंडल ने गुलज़ार कि नज़मों को अभिनय के धागे में पिरोकर मंच पर पेश किया, और नाम दिया "रेशम का शायर"। श्रीमती प्रगति पाण्डेय द्वारा निर्देशित यह रेशम का शायर नज्मों के बिलखने पर तो कभी उनके मुस्कराने पर दर्शकों की तालियाँ बटोरता रह। कुछ नज्मों को इस अंदाज़ में पेश किया गया है जैसे हम खुद से ही कुछ कहना चाह रहे हों। मिटटी थी मिटटी में मिल गयी तो इस पर अफ़सोस कैसा या फिर आदमी बुलबुला है पानी का, ये हमारी जिंदगी के अहम सच हैं। जो लोग गुलज़ार को करीब से जानते हैं वो इस शायर को गुलज़ार से जोड़ कर देखते हैं। किस तरह गुलज़ार पाकिस्तान से भारत आये, मुम्बई पहुंचे, राखी से उनका दोस्ताना और ये तमाम बातें। अगर गुलज़ार की नज्में उनकी जुबां हैं तो रेशम का यह शायर उनके जिंदगी की किताब है, जो गुलज़ार को पूरा बता देती है। वस्तुतः रेशम का यह शायर बचपन से लेकर जवानी, बुढापे और कई तरह की मौतों को जीकर जिंदगी की कड़वाहट, मिठास और शून्यता भरे अनुभवों का बखान नज्मों में कर देता है। उम्मीद का चिराग सोच की बाती के साथ जिंदगी का तेल खत्म होने के बाद भी सदा रोशन रहता है। ठीक वैसे ही जैसे रेशम का कीड़ा, जो मरकर भी नही मरता।

डॉ.सुयोग पाठक के संगीत निर्देशन में गुलज़ार की नज्मों को गुलदस्ता बनाकर मंच पर लाया गया है। गुलज़ार की एक कृति "छैयाँ - छैयाँ" को पूरी तरह से निभाया गया है। निर्देशक मणिरत्नम व्यवसायिकता के चलते फिल्म "दिल से" में "छैयाँ - छैयाँ" के जिन सरोकारों से चूक गए थे उसे विवेचना रंगमंडल ने पूरा किया है। इस कृति के साथ और न्याय किया जा सकता था यदि अलमस्त आवाज़ में इस नज़्म को संवारा जाता। बेशक रेशम का यह शायर के लिए जिन पात्रों का चयन किया गया उनका पसीना मोती की तरह चमका।